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कविता

दहशत

हरीशचंद्र पांडे


पारे सी चमक रही है वह

मुस्कराते होठों के उस हल्के दबे कोर को तो देखो
जहाँ से रिस रही है दहशत
एक दृश्य अपने-अपने भीतर बनते हुए बंकरों का

एक ध्वनि फूलों के चटाचट टूटने सी
एक कल्पना सारे आपराधिक उपन्यासों के पात्र
जीवित हो गए हैं
बहिष्कृत स्मृतियाँ लौटी हैं फिर

एक बार फिर
रगों में दौड़ने के बजाय
खून गलियों में दौड़ने लगा है

 


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